बुधवार, 15 दिसंबर 2021

सुदर्शन साहू की कहानी

14 दिसंबर 2021
*त्रेता युग के इक्ष्वाकु वंशीय सुदर्शन साहू की कहानी*
जब विधाता की कृपा होती है तो सारी संपत्तियां, सुख, वैभव व एश्वर्य इंसान को एक साथ नसीब होता है । त्रेतायुग में चारों पुत्रों के विवाह के पश्चात ऐसा ही अनुभव राजा दशरथ को हुआ । राजा दशरथ और उनकी तीनों रानियाँ अपने यशस्वी पुत्रों और सौभाग्यवती बहुओं को देखकर अत्यधिक प्रसन्नता का अनुभव करने लगे । सब प्रकार के दायित्वों से मुक्त और निश्चिंत रहने लगे । दान, पुण्य तथा व्रत जैसे पुनीत कार्य नित्य प्रति करने लगे । सभी धर्ममय होकर देव, विद्वानों और पित्रों की सेवा की बातें करने लगे । कोई भी दिन बिना धर्ममय कार्य के नहीं बीतता । राजा दशरथ के महल में मानसरोवर की भाँति विराट सभा चलने लगी । विज्ञान विशारद विद्वानों का चिंतन मनन चलता था । सुखद और प्रेरक प्रसंगों व कथाओं की चर्चा होती थी । कथा कहने सुनने के लिए ऋषि मुनियों के साथ-साथ स्वर्ग, मृत्यु तथा पाताल से श्रेष्ठ सज्जनों का आगमन होता था । देवऋषि नारद जी भी समय-समय पर आते थे । अनेक प्रकार की उत्कृष्ट कलाओं, नृत्य व गान का प्रदर्शन भी होता था । महाराज दशरथ के इस पुनीत कार्य तथा विवाह के समय किए गए दान आदि की सराहना करते हुए किसी सज्जन ने कहा कि राजा दशरथ आपका जीवन कितना सुंदर और धर्ममय है । आपकी दानशीलता और धर्मपरायणता की जितनी प्रशंसा की जाए सब कम है । तब राजा दशरथ ने कहा ऐसा बिलकुल भी नहीं है, मुझसे भी अधिक दानी, धर्मपरायण और सेवाभावी सज्जनों का जन्म इस संसार में हुआ है, जिनमें से एक हैं इक्ष्वाकु वंशीय सुदर्शन साहू  जिन्होंने अजेय मृत्यु तक को जीत ली तथा उनके पुत्र जिन्होंने ईश्वर को प्रसन्न करके उनकी भक्ति के अधिकारी बने। उनकी कथा मैं आप लोगों को सुनाता हूँ ।
हमारे इसी अवध नगर में अनंत धनवान, दयावान व परम पुरुषार्थी इक्ष्वाकु वंशीय सुदर्शन साहू नाम का व्यक्ति रहता था । उनकी पत्नी का नाम ओघवती था । एक दिन सुदर्शन आत्मचिंतन करने लगा कि मेरा जीवन इस मृत्यु लोक में निर्रथक हो रहा है, इसे सार्थक बनाने के लिए मुझे धर्ममय कार्य दान पुण्य आदि करने चाहिए । ऋषि मुनि गण कहते भी हैं कि अतिथियों की सेवा से सारे पुनीत कार्य एक साथ पूरा हो जाता है । सुदर्शन ने सुविचार कर शपथ ले ली कि अतिथि सेवा ही मेरा सर्वोपरि धर्म होगा; तथा मेरे घर से कोई भी खाली हाथ नहीं लौटेगा । सुदर्शन ने विचार किया कि यह सेवा कार्य मेरी पत्नी की सहायता के बिना संभव नहीं है । सुदर्शन ने अपनी योजना की सारी बातें अपनी पत्नी को बताया कि प्रिये इस संसार में जो भी व्यक्ति जन्म लेता है उसकी मृत्यु तो एक दिन निश्चित है । मृत्यु को आज तक कोई जीत नहीं सका है । संसार में कुछ ऐसे कार्य है जिसे करने से हम दीर्घकाल तक जीवन का सुख अनुभव कर सकते हैं । ओघवती ने कहा उत्तम विचार है स्वामी लेकिन इसके लिए हमें क्या करना होगा । सुदर्शन ने कहा मैनें अतिथि सेवा करने की शपथ ली है जिससे पुण्य बहुत अधिक मिलेगा और हम चीर काल तक सुखी रहेंगे लेकिन यह सब तुम्हारे हाथ में ही है । चूंकि अतिथियों के आगमन का समय निश्चित नहीं होता और मैं प्रायः किसी न किसी कार्य से घर से बाहर रहता हूँ । यदि तुम अतिथि सेवा का कार्य करोगी तभी मेरी शपथ पूरी हो पाएगी । ओघवती धर्मप्रिय नारी थी, वह सहर्ष तैयार हो गई । सुदर्शन आगे पत्नी को समझाते हुए कहा कि प्रिये ! अब जो बात मैं तुम्हें बताने जा रहा हूँ उसे ध्यान लगाकर सुनना । हमारे घर में कोई भी अतिथि आये और कुछ भी माँगे बिना किसी संकोच के शीघ्र प्रदान करना । कभी किसी को खाली हाथ मत लौटाना । ईर्ष्या जलन, क्रोध, कपट कभी भी किसी अतिथि के ऊपर नहीं करना । नारियों के लिए एक ही उत्तम धर्म है जैसा उनका पति कहे ठीक वैसे ही करना । अतिथि और पितृ देव रूष्ट हुए तो संसार का कोई भी पुनीत कार्य फलदायी नहीं हो सकता तथा व्यक्ति का विनाश हो जाता है, यह बात हमेशा ध्यान में रखना । पति के वचन सुनकर ओघवती ऐसा ही करने का विश्वास देती है । अतिथियों का आना जाना लगा रहता था । जो भी इनके दर पर आये सभी प्रसन्न चित्त होकर तथा आशीर्वाद देकर जाते थे। ऐसे ही वर्षों बीत गए ।
इधर मृत्यु के देवता सुदर्शन साहू और ओघवती के प्राण लेने बहुत दिनों से प्रतिक्षारत थे । लेकिन अभिमान, छल-कपट, क्रोध व ईर्ष्या रहित धर्ममय जीवन व्यतीत करने के कारण मृत्यु भी उनका बाल बाँका नहीं कर पा रही थी । बहुत प्रयास के बाद भी जब मृत्यु देव इस साहू दंपत्ति के प्राण हरण में विफल रहे तब कालदेव के पास जाकर त्राहि माम त्राहि माम पुकारने लगे । मृत्यु ने अक्षमता और विवशता के भाव से कहा कि प्रभु इस संसार में ऐसा कोई जीव नहीं है जिसका मैं प्राणांत न कर सकूँ लेकिन ये दो प्राणी सुदर्शन और ओघवती के पुण्य फल इतने प्रबल हैं कि मैं इनके प्राण हरने में सक्षम नहीं हूँ, हे प्रभु इसमें मेरा कोई दोष भी नहीं है । कालदेव पूरी बात गंभीरता से सुनता है । तथा इसको चुनौती के रूप में लेते हुए कहा कि मैं भी एक प्रयास करके देखता हूँ, देखना कैसे तिनके की भाँति इनके प्राण हरता हूँ । कालदेव अतिथि का रूप धारण करके धर्म की धुरी धारण करने वाले साहू दंपत्ति के घर पहुंचे। घर पर तब ओघवती अकेली बैठी थी । द्वार पर वेदों की ध्वनि सुनायी दी । आवाज पाकर ओघवती बाहर आयी, हाथ जोड़कर प्रणाम करते हुए अतिथि से पूछी कहो प्रभु क्या सेवा करूँ ? ओघवती की सुंदरता जो उनके धर्म कार्य की तरह उज्जवल थी तथा धर्म कार्य के प्रति आतुरता देखकर कालदेव अत्यंत प्रसन्न हुए किन्तु कालदेव के मन में कुछ और ही चल रहा था । अतिथि जो स्वयं कालदेव थे ने ओघवती को धर्म विमुख करने के उद्देश्य से कहा कि हे देवी हमें कुछ और नहीं बल्कि तुम्हारे अंग का दान चाहिए । भिक्षुक अनेक आते होंगे लेकिन मुझे तो सिर्फ अंगदान ही चाहिए । ओघवती विचारने लगी रस गोरस अन्न धन कुछ भी माँग लेता लेकिन इसकी मांग उचित नहीं लगता है, लेकिन इसे मना करती हूं तो मेरे पति के वचन का अपमान होगा । ओघवती बहुत विचार करने के बाद अपने पति का ध्यान करते हुए अतिथि से कहती है, गोसाई ठीक है आपको जो भिक्षा चाहिए ले लीजिए । अतिथि हर्षित होकर भवन के अंदर आया, ओघवती बिस्तर पर जा बैठी । उसी समय सुदर्शन साहू का आगमन होता है । मृत्यु भी सुदर्शन के पीछे-पीछे प्रार्थना करते हुए पहुंचा कि अब इनका धर्म का क्षय होने वाला है तो मुदगर के प्रहार से इनका प्राणांत करूँ । सुदर्शन द्वार पर पहुंचकर ओघवती को आवाज देता है, ओघवती पति के सम्मुख पुरी तेजस के साथ खड़ी होती है । तब सुदर्शन ने पत्नी को अतिथि सेवा मेंक्षव्यस्त जानकर अतिथि की प्रशंसा करने लगे । सुदर्शन ने अतिथि देव से कहा कि यह घर भी आपके घर जैसा है हम लोगों को अपना दास दासी ही समझिए । हमारा सौभाग्य है कि आप हमारे घर पधारकर हमें सेवा का सौभाग्य प्रदान किए हैं । शास्त्रों में कहा गया है कि अतिथि जिस घर पर सुख पूर्वक न रह सके वह घर, घर नहीं काठ के खोल के समान होता है । मैं धन्य हूँ जो कि मेरी अनुपस्थिति में मेरे धर्म का पालन मेरी पत्नी पूरे मन से करती है । सुदर्शन के विचार से कालदेव अत्यंत प्रसन्न हुए । विचारों की पवित्रता और धर्ममयता को देखकर अनंत आकाश से फूलो की वर्षा होने लगी । कालदेव ने कहा हे सुदर्शन आपने अपनी पत्नी पर कुदृष्टि रखने वाले शत्रु के समान व्यक्ति के प्रति भी इतना सेवाभाव रखते हैं तथा किसी भी परिस्थिति में कुविचारों को अपने मानस में स्थान नहीं देते हैं, आप धन्य हैं, आपकी सदा ही जय हो । मैं ओघवती को आज से अपनी बहन स्वीकार करता हूँ तथा आप दोनों की प्रशंसा करता हूँ । आप इक्ष्वाकु वंशीय साहू कुल के गौरव हैं आप स्वर्ग के साथ-साथ इतिहास में भी सदैव अमर रहेंगे, यही मेरा शुभाशीष है ।
सुदर्शन साहू का एक पुत्र भी था, जो अपने माता पिता की तरह धर्ममय और सेवाभावी व्यक्ति थे । जो भी व्यक्ति इनके द्वार पर आता था खाली नहीं लौटता था । अन्न धन, वस्त्र, पात्र व भोजन कुछ न कुछ जरुर मिलता था । ईश्वर एक दिन इनकी दानशीलता और धर्मपरायणता की परीक्षा लेने का विचार करता है । ईश्वर कुरूप कोढ़ी का भेष धारणकर अपने व्यापार में तल्लीन साहू को परखने के लिए उनकी दुकान के समीप आये । आमजन कोढ़ी को देख भयभीत होकर भागने लगे । किन्तु साहू ने उनको दीन हीन याचक जानकर खूब आदर सत्कार किया । साहू ने दोनों हाथ जोड़कर कोढ़ी से कहा बड़ी कृपा करके आपने अपना दर्शन दिया है, मेरा वश चलता तो मैं आपके सारे कष्टों को दूर कर देता, आज मुझसे जो बन पाएगा वह सब मैं आपके लिए करूंगा । कहिए प्रभु मैं आपकी क्या सेवा करूँ, मुझे अपना सेवक समझकर जो चाहिए निःसंकोच मांग सकते हैं । कोढ़ी ने कहा मेरा कष्ट तो मेरे कर्मों का प्रतिफल है जिसे मैं भोग रहा हूँ । हे भाई मुझे भूख लगी है, कुछ खाने को मिल जाये तो बड़ी कृपा होगी । साहू ने कहा खीर पुड़ी, फल, मिठाई, भोजन जो भी पकवान आपको पसंद हो मनभर खा सकते हैं । कोढ़ी सात्विक भोजन का नाम सुनकर प्रतिकार की भावना से कहा, इन्हें जो खाते हैं उन्हें ही खिलाओ, मैं ऐसा आहार नहीं करता हूँ । साहू हाथ जोड़कर बोले कि प्रभु फिर आप क्या खाएंगे बताइए । मैं आपकी सारी इच्छाएं पूरी करूंगा । साहू की बात सुनकर कोढ़ी ने कहा मुझे मांस खाना है वह भी किसी मनुष्य का मांस । कोढ़ी की बात सुनकर सब हँसने लगे किन्तु साहू धर्म संकट में पड़ गया । साहू सोचने लगा कि मैं इसकी इच्छा की पूर्ति कैसे करूँ, सब चीजें तो बाजार से मिल जाएगी किन्तु मानव मांस तो मुझे खुद से ही देना होगा, क्योंकि औरों का वध करके मांस लेने से घोर पाप लगेगा और यदि स्त्री का मांस खिलाता हूँ तो स्त्री का वध वेद के अनुसार वर्जित है । आखिर एक दिन सभी को मृत्यु का वरण करना ही है तो क्यों न इस तन का त्याग ईश्वर की सेवा में कर दूँ । साहू घर आकर अपनी दुविधा की बात साहुनि से कहता है साहुनि भी विचार करने लगती है । तभी कोढ़ी साहू के घर में पहुंच जाता है और कहता है कि साहू जी मुझे भोजन मिल पाएगा या दूसरी राह पकड़ूं । साहू ने कहा नहीं प्रभु आप आसन ग्रहण तो करिए मैं व्यवस्था कर रहा हूँ, विलंब के लिए क्षमा चाहता हूं । बस कुछ समय और फिर मेरा बलिदान होने के बाद आप मेरा मांस ग्रहण कर लेंगे । साहू की बात सुनकर साहुनि कहती है इन्हें मेरा भक्षण करने दीजिए क्योंकि मेरे मरने से आपको कुछ भी क्षति नहीं पहुँचेगी किन्तु आपके मरने से तो पूरा परिवार बिना मारे मर जाएगा, इसलिए मेरा मरना ही उचित है । कोढ़ी दोनों की बातें सुनकर कहता है मैं पागल हूँ जो तुम लोगों का मांस खाऊंगा और तुम लोग पागल हो जो मरने की बात करते हो । तुम्हारी कोई संतान है तो बताओ मैं उन्हीं का कोमल और स्वादिष्ट मांस भक्षण करूंगा और तुम लोगों को ढेरों आशीर्वाद प्रदान करूंगा । कोढ़ी ने आगे कहा मेरी कुछ शर्तें भी है, पहली ये कि वध करते समय आप लोगों के अश्रु नहीं बहने चाहिए तथा दूसरी ये कि इसे आपकी पत्नी पकाकर परोसेंगी और तीसरी कि आप मेरे साथ सहर्ष वार्तालाप करते रहेंगे । मैने अपने मन की बातें कह दी, आगे आपकी इच्छा ! यदि ऐसा संभव है तो मैं रूकता हूँ नहीं तो अपनी राह पर चलता हूँ । साहू दंपत्ति सेवा धर्म को सर्वोपरि मानकर कोढ़ी की बातों से सहमत हो जाते हैं । साहू और साहुनि कुछ पल के लिए अपने पुत्र को अद्वितीय स्नेह करते हैं तत्पश्चात उनका वध करते हैं । साहुनि मांस को भोजन के लिए तैयार करती है । साहू कोढ़ी को भोजन के लिए निवेदन करता है। कोढ़ी क्रोधित होकर साहू और साहुनि को दुत्कारता है कि तुम बनिया हो या कसाई जो निर्ममतापूर्वक अपने पुत्र को मार डाले । साहू साहुनि दोनों हाथ जोड़कर खड़े थे । कोढ़ी फटकारते हुए उनके घर से प्रस्थान करने लगता है तब साहू कोढ़ी के पैरों पर गिर जाता है । साहू कोढ़ी से कहता है कि मैंने आपके आगमन को प्रभु इच्छा जानकर पुरे मन से सेवा धर्म का निर्वहन किया है, आप बिना भोजन किए कैसे जा सकते हैं ? कोढ़ी अत्यंत प्रसन्न होकर हँसता है और भेष त्याग कर चतुर्भुज भगवान विष्णु का रूप धारण करता है । भगवान ने हर्षित होकर कहा कि हे साहू तुम्हारे समान सेवाभावी दानी इस संसार में कोई और नहीं है, मैं तुम्हारी सेवा भक्ति और दानशीलता से अत्यंत प्रसन्न हूँ ! माँगो जो-जो तुम्हें चाहिए। साहू और साहुनि ईश्वर की इस परीक्षा में सफल हुए । भगवान उनके पुत्र को पुर्ण स्वस्थ्य और मेघावी बालक के रूप में  पुनर्जीवित कर अपनी अनपायनी भक्ति प्रदान किया ।
महराज दशरथ ने सभासदों से कहा कि संसार में ऐसे-ऐसे दानी हुए हैं कि उनमें हमारा स्थान तो गिनती योग्य भी नहीं है।
*यह कहानी लालादास कृत रामायण "अवध-विलास" के अनुसार है।*
*विरेन्द्र कुमार साहू*