मानव सभ्यता का उद्भव एवं संस्कृति का प्राथमिक विकास नदियों के किनारे ही हुआ है। हमारे भारतीय संस्कृति में नदियों को जीवनदायिनी मातृतुल्य मानकर पुजा भी जाता है। यहां सदियों से स्नान पश्चात पांच नदियों के नामों का उच्चारण तथा जल की महिमा का बखान स्वस्थ भारतीय परम्परा वर्तमान है। महानदी छत्तीसगढ़ ही नही वरण् भारत की महान नदियों में से है।महानदी को छत्तीसगढ़ की जीवन दायिनी अथवा जीवनरेखा कहा जाता है। महानदी अत्यंत प्राचीन नदी है, इसलिए हम इसके इतिहास को पुराण श्रेणी का कह सकते है। एतिहासिक ग्रंथों के अनुसार महानदी की प्राचीन नाम चित्रोत्पला है। चित्रोत्पला दो शब्दों से मिलकर बना है। चित्रा+उत्पला, चित्रा का आशय शक्ति की देवी गायत्री से है तथा उत्पला का आशय कमल से है। चित्रा को एश्वर्य की महादेवी भी कहा जाता है। अर्थात् चित्रोत्पला का आशय कमल पर विराजमान सुख और एश्वर्य की प्रदायिनी महाशक्ति से है। एतिहासिक और पौराणिक ग्रंथो के मतानुसार चित्रोत्पला की उदगम शुक्लमत पर्वत से हुई है कुछ ग्रंथों में इसकी उदगम सिहावा की पहाड़ी में उत्पलेश्वर महादेव और छोर में स्थित चित्रा महेश्वरी से होना बताया है,जो कि एक ही स्थान का पर्याय है। इसकी एक और प्राचीन नाम मंदवाहिनी भी है, जिसका उल्लेख केवल इतिहासकार ही नही बल्कि भूगोलवेत्ता भी करते है। चित्रोत्पला की स्तुती महाभारत के भीष्मपर्व में पापनाशिनी और पुण्यदायिनी कहकर की गई है।
"उत्पलेशं समासाद्य यीवच्चित्रा महेश्वरी।
चित्रोत्पलेति कथिता सर्वपाप प्रणाशिनी॥"
इसी ग्रंथ में ये भी कहा गया है कि "भारतीय प्रजा चित्रोत्पला की जल पीती थी।" अर्थात् महाभारत काल में महानदी के तट पर आर्यों का निवास था। आर्यों से आशय प्राचीन समय के सुसंस्कृत मानव जाति से है। रामायण काल के पूर्व भी इस क्षेत्र में इक्ष्वाकु वंश के राजाओं ने अपना साम्राज्य स्थापित किया था। मुचकुन्द, दण्डक ,कल्माषपाद और भानुमंत आदि प्राचीन राजाओं का शासन प्राचीन दक्षिण कोसल अथवा महाकोशल में था। महानदी के उदगम का एक नाम विंद्यपाद भी बताया गया है।
"नदीतम् महापुण्या विन्ध्यपाद् विनिर्गता।
चित्रोत्पलेति विख्यानां सर्वपाप हरा शुभा॥"। पुरूषोत्तम तत्व में चित्रोत्पला के अवतरण स्थल की ओर इंगित करते हुए उसे महापुण्या तथा सर्वपाप हरा शुभा आदि कहा गया है। सोमेश्वर देव ने भी महुदा ताम्रपत्र में महानदी को चित्रोत्पला गंगा कहा है।
"यस्पाधरोधस्तन चंदनानां प्रक्षालनादवारि कवहार काले।
चित्रोत्पला स्वर्णावती गतापि गंगोर्भि संसक्त भिवाविभाति।"
महानदी को गंगा कहने के बारे में मान्यता है कि त्रेतायुग में श्रृंगी ऋषि का आश्रम सिहावा की पहाड़ी में था । वे अयोध्या में महाराज दशरथ के निवेदन पर पुत्रेष्टि यज्ञ कराकर लौटे थे। उनके कमंडल में यज्ञ में प्रयुक्त गंगा जी का अभिमंत्रित पवित्र जल भरा था ध्यानमुद्रा परिवर्तित करते समय कमंडल का अभिमंत्रित जल गिर पड़ा और बहकर महानदी के उदगम में मिल गया । गंगा जी के पवित्र अभिमंत्रित जल के मिल जाने से महानदी का जल गंगाजल के समान पुण्यफलदायी और पवित्र हो गयी । कुछ ग्रंथों में महानदी को नीलोत्पला, नीले कमल पुष्पित होने के कारण कहा गया । इसकी एक नाम कंकनंदिनी भी बताया गया है, जिसकी उत्पत्ति कंकपर्वत से होना कहा गया है। संभावना है कि रत्नों के विशाल भंडार होने के कारण सिहावा पर्वत को कंकपर्वत कहा जाता रहा हो। ऋषियों ने स्नेहवश महानदी को महानंदा आदि स्नेहिल नामों से संबोधित किये हैं। इस प्रकार प्राचीन काल की महान नदी आज की महानदी बन गयी और इसी नाम से विश्वविख्यात हो गई है। काल की गति से कंधे से कंधा मिलाकर चलती इस अमृतवाहिनी के अमरक्षेत्र में सामाजिक, आर्थिक ,धार्मिक सांस्कृतिक और राजनैतिक दशा ने सम्पन्नता पाया है,उसे हम महानदी घाटी की सभ्यता कह सकते है। महानदी घाटी की सभ्यता एक विशिष्ट सभ्यता है। इस एतिहासिक और पौराणिक मान्य नदी के तट से शुरू हुई यह सभ्यता धीरे धीरे नगरों तक पहुंची।
महानदी घाटी की सभ्यता का विस्तार जिस क्षेत्र में हुआ है ,उसे प्राचीन काल में महाकोसल ,दक्षिण कोसल आदि नामों से जाना जाता रहा है। वर्तमान में वही प्रदेश छत्तीसगढ़ के रूप में विख्यात है। महानदी, सिहावा की पहाड़ी से निकलकर कांकेर ,धमतरी, राजिम, आरंग ,सिरपुर ,शिवरीनारायण, चंद्रपुर, होते हुए उड़ीसा के संबलपुर, कटक से गुजरते हुए जगन्नाथ जी का चरण स्पर्श करते बंगाल की खाड़ी में विलीन हो जाती है। छत्तीसगढ़ के उपरोक्त उल्लेखीत शहर जिसकी अपनी अनुठी धार्मिक और एतिहासिक पहचान है, वर्तमान छत्तीसगढ़ के मध्यभाग में आवेष्टित है। इस क्षेत्र को हम महानदी घाटी का विस्तार कह सकते है। ऐसे तो इस भूभाग के वर्चस्व से वर्तमान छत्तीसगढ़ के सम्पूर्ण क्षेत्र प्रभावित रहा है। महानदी ज्यो ज्यो आगे बढ़ती है उनके स्वरूप विस्तृत होते गये हैं। अनेक सहायक नदियाँ जैसे पैरी, सोंढूर, शिवनाथ एंव उनके सहायक नदियाँ मनियारी, लीलागर, खारून, आगर एवं अन्य सहायक नदियाँ जोक ,अरपा आदि महानदी में विलीन हो जाती है। महानदी और उसकी सहायक नदियां बस्तर के कांकेर क्षेत्र ,धमतरी, दुर्ग ,राजनांदगांव ,रायगढ़ ,बिलासपुर जांजगीर चांपा, मल्हार, गरियाबंद जिला के राजिम क्षेत्र , महासमुंद ,रायपुर जिले आदि के क्षेत्रों में फैले हुए है जो वर्तमान छत्तीसगढ़ के मध्यभाग है ।इन क्षेत्रों में बसे नगरों का इतिहास पौराणिक है। गंगा जी के समान पवित्र होने के कारण महानदी के तट पर अनेक धार्मिक, सांस्कृतिक और ललित केन्द्र स्थित है। वर्तमान बस्तर के कांकेर भाग को छोड़कर बस्तर का हिस्सा जो गोदावरी नदी व इंद्रावती के मध्य स्थित है प्राचीन महाकोसल या दक्षिणकोसल का भाग नही था। इसे तत्समय महाकांतार ,भ्रमरकुट या चक्रकुट आदि नाम से जाना जाता था। महाराजा सोमेश्वर देव के काल में इस क्षेत्र को भ्रमरकुट या चक्रकुट के नाम से ही जाना जाता था। संभवतः मान्धाता के नाम से ख्यात क्षेत्र भी बस्तर ही है। बस्तर क्षेत्र के बारसूर उस समय का आकर्षक शहर था।
महानदी घाटी में अवस्थित शहरों की प्राचीन वैभव की विवेचन करें तो सर्वप्रथम राजिम को लेते है। राजिम का प्राचीन या पौराणिक नाम देवपुर कहा गया है। देवपुर क्षेत्र का विस्तार केंद्र से पांच कोस के वृत्त में माना गया है । इस क्षेत्र को ब्रह्मा जी के माध्यम से कमल पुष्प के द्वारा बसाया गया है, इसलिए इस क्षेत्र का परिचय कमलक्षेत्र अथवा पदमक्षेत्र के रूप में भी है। पांच कोस के परिधि में बसे इस क्षेत्र का विशेष धार्मिक महत्व है ।इस क्षेत्र में पांच महादेव कुलेश्वर नाथ राजिम को केंद्र मानकर बसा है जिसमें पटेश्वर महादेव पटेवा , फणेश्वर महादेव फिंगेश्वर, ब्रह्मनेश्वर महादेव बह्म्नी , चम्पेश्वर महादेव चंपारण और कोपेश्वर महादेव कोपरा में विराजमान है। इस क्षेत्र को पंचकोषी धाम के रूप में जाना जाता है। एक प्राचीन तीर्थ काव्य में इसका वर्णन इस प्रकार है -
तत्क्षेत्रं मलं दिव्यं कमलोपरि संस्थितम ,
चक स लाके जलधौ विष्णु मेरी बाम्बुजम,
अकार्षी दिव्यं नगर राजीव बाख्थ सदुलमम॥
ब्रह्मा जी द्वारा राजिम का निर्माण मानना विस्वास की एक प्राचीन अभिव्यक्ति है। किंतु हमें यह मानकर चलना होगा कि ऋषि मुनि आर्यव्यवस्था के प्रवर्तक थे ।संभवत: राजिम क्षेत्र की रचना ऋषि मुनियों ने की होगी। वर्तमान राजिम क्षेत्र , प्राचीन वैभव के अवशेषों की दृष्टि से कहे तो अजन्ता के समान है। राजिम क्षेत्र के संबंध में ग्रंथ कहते है -
"उत्तर कौशले देश, वर्षे भारत संज्ञ के,
विंध्य स्व दक्षिणी भाग आर्यवितो तम ज्ञिक्षिर्ता
कमला कारममले पंचक्रोशपुरंमहत
महानदी मया दृष्टया समीपे तस्य शोभनाः॥"
उक्त वर्णित श्रुति वर्तमान में भी ज्यों का त्यों अवस्थित है। राजिम क्षेत्र के सिरकट्टी जो पैरी नदी के तट पर स्थित है वह भी पुरातात्विक अवशेषों की अध्ययन की दृष्टि से अतिमहत्वपूर्ण है। सिरकट्टी में भी प्राचीन मुर्तियों के अवशेष है । यहाँ की अधिकांश मुर्तियों के सिर कटे हुए है इसलिए इस स्थान को सिरकट्टी कहते है। राजिम क्षेत्र के विषय में अनेक किवदंती भी प्रचलित है, जिसका प्रमाणिक अध्ययन और विश्लेषण के लिए पुरातात्विक उत्खनन अति आवश्यक है।
सिरपुर का संबंध भी रामायण एवं महाभारत काल से रहा है। इस संबंध में अनेक गाथाएँ प्रचलित है। सिरपुर प्राचीन राजाओं के राजधानियां के रूप में भी विख्यात रहा है। प्राचीन काल में इसे श्रीपुर , चित्रांगदपुर तथा मणिपुर भी कहा जाता था। सिरपुर को पुराणों में नारायण क्षेत्र कहा गया है। जिस तीर्थ ग्रंथों में राजिम को देवपुर कमलक्षेत्र कहा है, उसमें सिरपुर को नारायण क्षेत्र और मणिपुर कहा है।
शनैमंकिस हायोसां प्राथ भुतत भूशणम
नाम्ना मणिपुर दिव्य देवेतन्द्रपुरोपम व
मणिमाण्यत्र राजर्षि: पुरासीध्दर्भ ध्रुर्वह:
जित्वा स राक्षसानीकं सर्वचके पुरोतम्॥
सिरपुर में कदाचारी द्रविड़ो का भी निवास कभी रहा था, जिसे मारकर राजर्षि मणिमान ने मणिपुर नगर बसाया और स्वयं शासक बने।
सिरपुर प्राचीन काल में बौद्ध धर्म के संस्कार केन्द्र रूप में भी जाना जाता रहा है। महाकोसल क्षेत्र में नालंदा विश्वविद्यालय और तक्षशिला विश्वविद्यालय से पूर्व विश्वविद्यालय की स्थापना बताया जाता है। बौद्ध धर्म का शिक्षा केंद्र भी रहा है। इस पावन प्रदेश में नागार्जुन का जन्म बताया जाता है। जो ईसा के दूसरी शताब्दी में हुए है।न्याय एवं दर्शन में सर्वांग स्थिति काल में नागार्जुन सिरपुर महाकोशल के निवासी थे। प्राचीन इतिहास का पुख्ता प्रमाण इस क्षेत्र का ईसा पूर्व की चौथी सदी से प्राप्त होता है।तत्समय मौर्य वंश का साम्राज्य रहा था।ईसा के चौथी सदी में इस भूभाग पर गुप्त वंश का शासन था। इस वंश के अंतिम शासक महाशिवगुप्त थे जिनके माताश्री वासटादेवी ने सिरपुर के लक्ष्मण मंदिर का निर्माण पांचवी शताब्दी के अंत में करवाया था। इस प्रांत में चीनी यात्री ह्वेन सांग का आगमन भी 639 ईसवीं मे हुआ था, जिन्होंने अपने यात्रा वृतांत में इस क्षेत्र की समृद्धि व राजव्यवस्था के उत्तमता और वैभव का वर्णन किया है। राजिम और सिरपुर के अलावा कांकेर ,धमतरी ,डोंगरगढ़, रतनपुर, चंद्रपुर, मल्हार, रायगढ़ जांजगीर चांपा ,तुरतुरिया और आरंग आदि का इतिहास भी अति प्राचीन है ,और अपने अज्ञात वैभव में पौराणिक कथाओं एवं लोक प्रचलित किवदंतियों को समेटे हुए है। जिस पर पुरातात्विक और वैज्ञानिक विश्लेषण की आवश्यकता है । पौराणिक और लौकिक कथाओं की प्रचुरता वास्तविक सत्य को पुष्ट करने में जितनी सहायक है उतनी ही बाधक भी है। कहीं न कहीं इतिहासकारो ने भावुकता का सहारा लेकर पृष्ट को धूंधला दिया है। महानदी घाटी में अभी तक हुए उत्खननों में नगर निर्माण योजना एवं शिल्प की जो जानकारी प्राप्त हुई है वह अपने आप में अनूठी है। भारत में ललित कला के चार केन्द्र बताये गये है १. गंधार २. मथुरा ३. सारनाथ ४. अमरावती । परन्तु राजिम में निर्मित राजीवलोचन मंदिर कला की दृष्टि से गंधार शैली के समकक्ष है। सिरपुर में बने मंदिरे वास्तुशास्त्र के अनुसार बने हुए है तथा निर्माण कला बेजोड़ है। सिरपुर के अलावा मल्हार, धमतरी ,रतनपुर ,आरंग, चंद्रपुर और सिरकट्टी में पाये गये अवशेष शिल्प की दृष्टि से समृद्धि का गौरव गान करती है। इस क्षेत्र की अधिकांश मंदिरे निर्माण शैली के हिसाब से पुरे भारत वर्ष में प्रचलित कला शैली को मात देते है ।भारत के इतिहास लेखकों ने छत्तीसगढ़ के शिल्प का समुचित मूल्यांकन नही किये होंगे शायद इसीलिये वैभवशाली विरासत धरोहर उपेक्षित है । राजीवलोचन मंदिर 8-9 वी सदी की है। सिरपुर का लक्ष्मण मंदिर 5वी सदी का है जो आज भी दुरूस्त अवस्था में है और सिर्फ ईंट से बने है। गंधेश्वर महादेव का मंदिर भी अति प्राचीन है।छत्तीसगढ़ के समृद्ध सभ्यता के इतिहास को जानने की दिशा में कोई ज्यादा प्रयास नही हुए है। इस दिशा में प्रथम प्रयास सागर विश्वविद्यालय ने किया । सिरपुर में उत्खनन कार्य 1955-56 में किया गया जहां पर सभ्यता के कुछ झलक परिलक्षित हुए ।परंतु यह प्रयास नाकाफी है। इस दिशा में दूसरा प्रयास मल्हार में सन 1974 से 1977 के बीच में हुआ, जहां गुप्त कालीन और रोम के राजाओं के कुछ मुद्राएं प्राप्त हुए है। बिलासपुर जिले के किरारी गांव में काष्ठ के 1800 वर्ष पुरानी यज्ञ स्तंभ प्राप्त हुआ है जो पुरे भारत वर्ष में अद्वितीय है। मल्हार क्षेत्र में २री सदी का प्राचीन चतुर्भुज विष्णु की प्रतिमा मिलना यहां की प्राचीन शिल्प कला के साथ धार्मिक भावना का दर्शन कराती है ।मल्हार में ही मौर्य काल से पहले भी सभ्य समाज के लोग रहते थे जो ईंट से मकान बनाकर रहते थे। सभ्यता का उदय निश्चित ही इस क्षेत्र में सिंधु घाटी के समकक्ष या पहले का प्रतीत होता है।
महानदी की घाटी आर्थिक रूप से संपन्न स्थिति में थे। यहां से प्राप्त रोमन सिक्के यहां से विदेशी व्यापार का संबंध प्रमाणित करते है। शरभपुरीय एवं कलचुरी राजाओं के समय में प्रचलित स्वर्ग मुद्राएँ इस प्रांत की आर्थिक सम्पन्नता को प्रमाणित करते है। प्राचीन काल में महानदी व्यापारिक संपर्क का एक माध्यम था। इसमें नावों के माध्यम से व्यापार किये जाते थे। सिरकट्टी के पास प्राचीन बंदरगाह का नमूना आज भी उपलब्ध है। बिलासपुर के मल्हार और जांजगीर चांपा जिले के अनेक गांवो में रोमन सम्राट सरवीरस, क्रोमोडस , औरेलियस और आन्टीनियस के शासनकाल के सोने के सिक्के मिले है। महानदी भी हीरा और सोना प्राप्ति के लिए विश्वविख्यात थी। वराहमिहिर की वृहद संहिता में महाकौशल में हीरा मिलने की बात स्वीकार की जाती है ,जिसमें हीरा को शिरीष के फूल के समान होना बताया है। इस पंक्ति में देखें तो ऐसा प्रतित होता है- "शिरीष कुसुमोपम् च कोसलम्" । मिस्र के प्रख्यात ज्योतिष टालेमी जिन्होंने भारत की यात्राएं भी किए है , ने कोसल देश के हीरो का उल्लेख किए है। यूनान में महानदी के हीरो की प्रसिद्धि थी। दक्षिण कौशल के नाम से ख्यात क्षेत्र खनिज संसाधनों से काफी समपन्न क्षेत्र था। आर्थिक सम्पन्नता के परिणामस्वरूप यहां के लोग बहुत ही खुशहाल थे। महानदी का एक नाम कंकनंदिनी भी है। जिसकी उत्पत्ति कंकपर्वत से बताया गया है। संबंधित एक संदर्भ है-
ऋषिणा श्रृंगि नाणिता दिव्य देवतरंगिनी महानदी सम ख्याना
कंक भुघं नंदनी तत्राक भिष्यत्यचिरं तदा चित्रोत्पला ख्यालाका।
संभवत: सिहावा को कभी कंकपर्वत भी कहा जाता रहा हो । वर्तमान सिहावा क्षेत्र प्राचीन वैभव एवं सम्पदा के विपुल भंडार से लबालब है।
पौराणिक काल से इस क्षेत्र की राजनीति में विशेष महत्व था। रामायण एवं महाभारत काल से पूर्व भी इस प्रांत में इक्ष्वाकु वंश के नरेशों का शासन रहा है। मुचकुंद दण्डक कल्माषपाद और भानुमंत आदि का शासन प्राचीन दक्षिण कौसल में था। भगवान राम की माता कौसल्या दक्षिण कौशल के नरेश भानुमंत की पुत्री थी, जिनका विवाह अवध नरेश महाराज दशरथ से हुआ था। इसलिए आज भी प्रत्येक छत्तीसगढ़िया माता कौसल्या को दीदी और राम को भांजा मानते है। ज्ञात इतिहास की झलकियाँ देखें तो इतिहास की पृष्ट ईसा पूर्व की चौथी सदी से खुलती है ,जब समुद्रगुप्त शासक थे। इस काल के कुछ अवशेष तुरतुरिया में पाये गये है।इसके बाद सातवाहन वंश का शासन रहा है। किन्तु तत्समय तक के कोई ठोस प्रमाण नही मिले है। सातवाहन वंश के समय का काष्ठ स्तंभ बिलासपुर के किरारी नामक स्थान पर प्राप्त हुआ है जो 1800 वर्ष से अधिक पुरानी है। ईसवी शताब्दी के तीसरी शताब्दी में वकाटक वंश चौथी शताब्दी में गुप्त वंश पांचवीं शताब्दी में राजर्षि तुल्य वंश और नलवंश का शासन क्रमशः रहा है। 6-7 वी शताब्दी में सोमवंशी शासकों का शासन रहा है संभवतः सोमवंशी ही पाण्डुवंशी शासक है जिनको शैवधर्म शिवपूजा से संबंधित होने के कारण सोमवंशी कहा गया है। नलवंशी शासकों के अवसान पश्चात कुछ समय के लिए शरभपुरीय वंश का भी शासन रहा है जिनके राजधानी के रूप शरभपुर का उल्लेख है ।किन्तु शरभपुर के वास्तविक स्थिति के संबंध में मतभेद है । कुछ विद्वान मल्हार को शरभपुर मानते है इन विद्वानों में श्री के. डी. वाजपेयी प्रमुख है । पर कुछ इतिहासकार सिरपुर को ही शरभपुर कहते है। इसलिए शरभपुर की स्तिथि अस्पष्ट है। 11वी सदी में कलचुरी वंश का साम्राज्य स्थापित हुआ जो 800 वर्ष तक चला । यह छत्तीसगढ़ में सर्वाधिक लम्बी शासन काल है। कलचुरियों के काल में ही इस प्रांत का नाम दक्षिण कोसल से छत्तीसगढ़ पड़ा। सन् 1487 ईस्वी में चारणकवि दलपतराम राव ने सर्वप्रथम छत्तीसगढ़ शब्द का प्रयोग किया था। कलचुरियों के बाद छत्तीसगढ़ में मराठो और भोसलो का शासन रहा था। इस प्रकार प्राचीन दक्षिण कोसल से वर्तमान छत्तीसगढ़ का इतिहास गौरवशाली शासकों से शासित रहा और हमेशा उत्कर्ष को प्राप्त करता गया।
महानदी घाटी की सभ्यता को हम भारतवर्ष की सबसे प्राचीन सभ्यता में से कह सकते है। इस क्षेत्र के मदकू द्वीप में मुण्डकोपनिषद् के रचना का प्रमाण प्राप्त होता है। वाल्मीकि जी के आश्रम और सप्तऋषियों के कार्य क्षेत्र भी यह पावन प्रदेश रहा है।छत्तीसगढ़ की संस्कृति परम्परा और रिवाज अपने आप में बहुत ही विशाल और रोमांचकारी है। प्राचीन काल से ही यहाँ के निवासियों में ईश्वर के प्रति अथाह श्रद्धा और विस्वास रही है जो महानदी घाटी की सभ्यता को दैविक स्वरूप प्रदान करता है ।महानदी का जल पीकर इस भुखंड पर निवास करने वाले लोग भी महानदी के जल के समान पवित्र है, और इसके मीठे जल का प्रभाव यहाँ के निवासियों में पड़ा है जिनके वैचारिक पुष्टता का प्रमाण स्पष्ट रूप से मिलता है। यहाँ के निवासी ईमानदार दयालु और धर्म के प्रति आस्तिक है। धर्म के प्रति आस्था को कुछ द्वेषी लोग धर्मभीरू की संज्ञा दे देते है। यहाँ के निवासियों ने प्राकृतिक शक्तियों को देवत्व की आसंदी से सम्मानित किया है। प्राकृतिक शक्तियों की तृप्ति के लिए यज्ञ विधान भी करते थे और इस यज्ञ में वेदों की ऋचाएं और सामवेद की संगीतमय मंत्रो का मंत्रोच्चार भी करते थे जो यहां के उच्च शिक्षा के परिचायक है। पारिवारिक और सामाजिक आदर्श उच्चकोटि के थे। समाज और मानव को नियंत्रित करने के लिए धर्म और व्यवहार दोनो छत्तीसगढ़ के अस्तित्व कानून थे। इस प्रकार प्राचीन महाकौशल जो वर्तमान छत्तीसगढ़ है, प्राचीन काल से ही सभ्यजनो का निवास स्थल रहा है। इस प्रांत का सांस्कृतिक सामाजिक राजनैतिक और आर्थिक संबंध तत्कालीन सभ्य समाज के रूप विख्यात चीन मिस्र और रोम से रहा है। इस समृद्ध सभ्यता की पहचान करने की दिशा में अभी तक कुछ खास पहल नही हुआ है। यदि इस दिशा में पहल किया जाय तो रामायण महाभारत सहित पुराप्राचीन काल के सुराख मिल सकते है। प्राचीन ग्रंथों में प्रचलित किवदंतियों की वास्तविकता पता चल सकता है। प्राचीन वैभवशाली प्रांत के अवशेष आज भी सिरपुर मल्हार राजिम आरंग तुरतुरिया खरौद शिवरीनारायण धमतरी रतनपुर चंद्रपुर और अन्य स्थानो पर धरती के गोद से निकलकर कुछ कहने को आतुर है। महानदी घाटी के चार प्रमुख तट पुरातात्विक खनन की दृष्टि से अतिमहत्वपूर्ण है जिसमें १. राजिम २. सिरपुर तुरतुरिया ३.आरंग ४. मल्हार शामिल है। आज भी इन स्थानो पर प्राचीन मान्यताओं के अनुरूप मेला लगते है। माघ पूर्णिमा में लगने वाला राजिम मेला अब कुंभ का रूप धारण कर लिया है जो कि स्थान के पौराणिक मान्यताओं के अनुसार सर्वथा उचित है।
राजिम में पुरातात्विक उत्खनन की दिशा में विशेष प्रयास करने वाले पुरातत्वविद् श्री अरूण कुमार शर्मा जी रायपुर को अभी अभी पुरातत्व के क्षेत्र में योगदान के लिये भारत सरकार द्वारा पद्म श्री सम्मान से सम्मानित किया है।उनका इस दिशा में प्रयास बहुत ही सराहनीय है। महानदी तट के समस्त स्थानों पर शासन के मार्गदर्शन में ठोस पहल होना चाहिए। इसके लिए हमारे क्षेत्र की जनता एवं जनप्रतिनिधियों को शासन के समक्ष आवाज़ बुलंद करना चाहिए। यदि सही दिशा में उत्खनन कार्य होता है तो निश्चित ही यहां सुप्तावस्था में विद्मान अमर सभ्यताएं गुनगुनाने लगेंगे।
पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय जी की पंक्ति है-
महानदी बोहाय जिंहा होवय धान बिसेस।
जनमभूम सुंदर हमर आय छत्तीसगढ़ देस॥
आय छत्तीसगढ़ देस महाकोसल सुखरासी।
राज रतनपुर जिंहा रहिस जस दुसर कासी॥
सोना हीरा के जिंहा मिलथे खूब खदान।
हैहयवंशी भुप के वैभव सुजस महान॥
पाण्डेय जी की इन पंक्तियों में छत्तीसगढ़ का वैभव स्पष्ट झलकता है। तब मैं यहाँ अपनी उपस्थिति पर गर्व करते हुए कहता हूं कि "महानदी की पवित्र जल से संस्कारित मेरी यह देह धर्म क्षेत्र राजिम और मातृ प्रदेश छत्तीसगढ़ का सदैव ऋणी रहेगा। महानदी महज एक नदी नही बल्कि इस प्रांत को उड़ीसा एवं पुरे विश्व से जोड़कर पल्लवित करती सभ्यता की सेतु है। अपने हरित प्रदेश में ममता करूणा और दया की त्रिविध भाव से संसकारित और पोषित करती जीवनदायिनी माता है। महानदी की उपस्थिति ने छत्तीसगढ़ को धान की कटोरा से पदमानित किया है। माता के आगोश में मानव ज्यो प्रगति करता है उसी प्रकार महानदी के मीठे जल से मानव समाज अध्यात्मिक सामाजिक आर्थिक और सांस्कृतिक वैभव को प्राप्त किया है। आदिम सभ्यता के तमाम पहलू यहां के मिट्टी में दबे हुए है जिसे पुरातात्विक उत्खननों से और अधिक पल्लवित और समृद्ध किया जा सकता है।
मुझे इस आलेख लेखन में परम श्रद्धेय कृष्णा रंजन जी महराज की लेख से प्रेरणा एवं आशीर्वाद प्राप्त हुआ है। एवं अन्य विभूतियों का भी प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष सहयोग प्राप्त हुआ है। मैं तमाम देवियों और सज्जनों का ह्रदय से आभार व्यक्त करता हूं एवं कोटिशः धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ।
आलेख-
विरेन्द्र कुमार साहू
बोड़राबांधा घटकर्रा
बहुत सुंदर वीरेन्द्र भाई,
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